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XI सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने पर उत्कृष्ट वचन

(II) परमेश्वर से प्रार्थना और उसकी आराधना करने पर वचन

11. प्रार्थना किसी प्रकार का संस्कार नहीं है; यह लोगों और परमेश्वर के बीच एक सच्चा सायुज्य है, इसका गहन महत्व है। लोगों की प्रार्थनाओं से हम क्या देख सकते हैं? हम देख सकते हैं कि वे सीधे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं। यदि तुम प्रार्थना को एक संस्कार के रूप में देखते हो, तब तुम निश्चित रूप से परमेश्वर की सेवा अच्छी तरह से नहीं करोगे। यदि तुम्हारी प्रार्थनाएँ ईमानदारी या निष्कपटता से नहीं की जाती हैं, तो ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के दृष्टिकोण से, तुम एक व्यक्ति के रूप में अस्तित्व में नहीं हो; ऐसा मामला होने पर तुम अपने पर पवित्र आत्मा का कार्य कैसे करवाओगे? परिणाम यह होगा कि कुछ समयावधि तक कार्य करने के बाद तुम थक जाओगे। अब से, प्रार्थना के बिना, तुम कार्य नहीं कर पाओगे। यह प्रार्थना ही है जो कार्य लाती है, और प्रार्थना ही है जो सेवा लाती है। यदि तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो जो एक अगुआ है और परमेश्वर की सेवा करता है, मगर तुमने स्वयं को कभी भी प्रार्थना के प्रति समर्पित नहीं किया है अथवा यहाँ तक कि तुम अपनी प्रार्थनाओं में भी कभी गम्भीर नहीं रहे हो तो जिस तरीके तुम से सेवा करते हो उससे तुम असफल हो जाओगे। ... यदि तुम प्रायः परमेश्वर की उपस्थिति में आ सकते हो और प्रायः उससे प्रार्थना कर सकते हो, तो यह प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर को परमेश्वर के रूप में मानते हो। यदि तुम प्रायः चीज़ों को खुद से करते हो और अक्सर प्रार्थना करने की उपेक्षा करते हो, उसकी पीठ पीछे कुछ न कुछ करते रहते हो, तो तुम परमेश्वर की सेवा नहीं कर रहे हो; बल्कि, तुम बस अपना कारोबार कर रहे हो। अपने आप में, क्या तुम्हारी निन्दा नहीं की जाएगी? बाहर से देखने पर, ऐसा प्रतीत नहीं होगा मानो कि तुमने कुछ हानिकारक किया है, न ही ऐसा प्रतीत होगा कि तुमने परमेश्वर की ईशनिन्दा की है, बल्कि तुम बस अपना स्वयं का ही कार्य कर रहे होगे। ऐसा करने में, क्या तुम बाधा नहीं डाल रहे हो? भले ही, सतही तौर पर, ऐसा दिखाई देता है कि तुम बाधा नहीं डाल रहे हो, किन्तु सारभूत रूप से तुम परमेश्वर का विरोध कर रहे हो।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "प्रार्थना का महत्व और अभ्यास" से उद्धृत

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12. जब परमेश्वर ने मानवजाति को बना लिया और उन्हें आत्माएँ दे दीं उसके बाद, उसने उन्हें आदेश दिया कि यदि उन्होंने परमेश्वर को नहीं पुकारा, तो वे उसके आत्मा से नहीं जुड़ पाएँगे और इस प्रकार स्वर्ग से "उपग्रह टेलीविजन" पृथ्वी पर प्राप्त नहीं होगा। जब परमेश्वर लोगों की आत्माओं में अब और नहीं है, तो एक खाली स्थान अन्य चीजों के लिए खुला हुआ है, और ऐसे ही शैतान प्रवेश करने के अवसर को झपट लेता है। जब लोग अपने हृदय से परमेश्वर से संपर्क करते हैं, तो शैतान तुरंत खलबली में पड़ जाता है और बचने के लिए भागता है। मानवजाति के रोने के माध्यम से परमेश्वर उन्हें वह देता है जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है, किन्तु वह पहले से उनके भीतर "निवास नहीं" करता है। वह उनके रोने की वजह से बस लगातार उनकी सहायता करता है और लोगों को उस आंतरिक शक्ति से मजबूती मिलती है ताकि शैतान यहाँ अपनी इच्छानुसार "खेलने" की हिम्मत न करे। इस तरह, यदि लोग लगातार परमेश्वर के आत्मा से जुड़ते हैं, तो शैतान गड़बड़ी करने के लिए आने की हिम्मत नहीं करता है। शैतान की गड़बड़ी के बिना, सभी लोगों के जीवन सामान्य होते हैं और परमेश्वर के पास बिना किसी रुकावट के उनके भीतर कार्य करने का अवसर होता है। इस तरह, परमेश्वर जो करना चाहता है वह मनुष्यों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों के रहस्य की व्याख्या के "अध्याय 17" से उद्धृत

13.

(परमेश्वर के वचन के चुनिंदा अवतरण)

प्रार्थना की क्रिया के विषय में
अपने प्रतिदिन के जीवन में तुम प्रार्थना पर बिलकुल ध्यान नहीं देते। लोगों ने प्रार्थना को सदैव नजरअंदाज किया है। अपनी प्रार्थनाओं में वे ऐसे ही इधर-उधर घूमते हैं और ऊपरी तौर पर कार्य करते हैं, और किसी ने भी कभी परमेश्वर के समक्ष पूरी रीति से अपने हृदय को समर्पित नहीं किया है और न ही परमेश्वर से सच्चाई से प्रार्थना की है। लोग परमेश्वर से तभी प्रार्थना करते हैं जब उनके साथ कुछ घटित हो जाता है। इन सारे समयों के दौरान, क्या तुमने कभी सच्चाई के साथ परमेश्वर से प्रार्थना की है? क्या तुमने कभी पीड़ा के आँसुओं को परमेश्वर के सामने बहाया है? क्या तुमने कभी परमेश्वर के सामने स्वयं को पहचाना है? क्या तुमने कभी परमेश्वर के साथ हृदय से हृदय मिलाते हुए प्रार्थना की है? प्रार्थना का अभ्यास धीरे-धीरे किया जाता है: यदि तुम सामान्य रीति से घर पर प्रार्थना नहीं करते हो, तब तुम्हारा कलीसिया में प्रार्थना करने का कोई अर्थ नहीं होगा, और यदि तुम छोटी-छोटी सभाओं में सामान्य रीति से प्रार्थना नहीं करते हो, तो बड़ी-बड़ी सभाओं में प्रार्थना करने में भी असमर्थ होगे। यदि तुम सामान्य रीति से परमेश्वर के निकट नहीं आते या परमेश्वर के वचनों पर मनन नहीं करते हो, तो तुम्हारे पास तब कहने के लिए कुछ भी नहीं होगा जब प्रार्थना का समय होगा—और यदि तुम प्रार्थना करते भी हो, तो बस तुम बस दिखावा करोगे, तुम सच्चाई से प्रार्थना नहीं कर रहे होगे।

सच्चाई के साथ प्रार्थना करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपने हृदय में शब्दों को कहना, और परमेश्वर की इच्छा को समझकर और उसके वचनों पर आधारित होकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करना; इसका अर्थ है विशेष रूप से परमेश्वर के निकट महसूस करना, यह महसूस करना कि वह तुम्हारे सामने है, और कि तुम्हारे पास उससे कहने के लिए कुछ है; और इसका अर्थ है अपने हृदय में विशेष रूप से प्रज्ज्वलित या प्रसन्न होना, और यह महसूस करना कि परमेश्वर विशेष रूप से मनोहर है। तुम विशेष रूप से प्रेरणा से भरे हुए महसूस करोगे, और तुम्हारे शब्दों को सुनने के बाद तुम्हारे भाई और तुम्हारी बहनें आभारी महसूस करेंगे, वे महसूस करेंगे कि जो शब्द तुम बोलते हो वे उनके हृदय के भीतर के शब्द हैं, वे ऐसे शब्द हैं जो वे कहना चाहते हैं, और जो तुम कहते हो वह वही है जो वे कहना चाहते हैं। सच्चाई के साथ प्रार्थना करने का अर्थ यही है। सच्चाई के साथ प्रार्थना करने के बाद, अपने हृदय में तुम शांतिपूर्ण, और आभारी महसूस करोगे; परमेश्वर से प्रेम करने की सामर्थ्य बढ़ जाएगी, और तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने से अधिक योग्य और महत्वपूर्ण कुछ नहीं है—और यह सब प्रमाणित करेगा कि तुम्हारी प्रार्थनाएँ प्रभावशाली रही हैं। क्या तुमने कभी इस तरह से प्रार्थना की है?

और प्रार्थना की विषय-वस्तु के बारे में क्या? तुम्हें अपनी सच्ची दशा के अनुसार चरण दर चरण प्रार्थना करनी चाहिए, और यह पवित्र आत्मा के द्वारा होनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और मनुष्य के लिए उसकी माँगों को पूरा करते हुए परमेश्वर के साथ वार्तालाप करनी चाहिए। जब तुम अपनी प्रार्थनाओं का अभ्यास करना आरंभ करते हो तो सबसे पहले अपना हृदय परमेश्वर को दो। परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास न करो; केवल परमेश्वर से अपने हृदय की बातों को कहने की कोशिश करो। जब तुम परमेश्वर के सामने आते हो तो इस प्रकार कहो: "हे परमेश्वर! केवल आज ही मैंने यह महसूस किया है कि मैं तेरी आज्ञा का उल्लंघन किया करता था। मैं पूरी तरह से भ्रष्ट और घृणित हूँ। पहले मैं अपने समय को बर्बाद कर रहा था; आज से मैं तेरे लिए जीऊँगा। मैं अर्थपूर्ण जीवन जीऊँगा, और तेरी इच्छा को पूरी करूँगा। मैं जानता हूँ कि तेरा आत्मा सदैव मेरे भीतर कार्य करता है, और सदैव मुझे प्रज्ज्वलित और प्रकाशित करता है, ताकि मैं तेरे समक्ष प्रभावशाली और मजबूत गवाही दे सकूँ, जिससे मैं हमारे भीतर शैतान को तेरी महिमा, तेरी गवाही और तेरी विजय दिखाऊँ।" जब तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारा हृदय पूरी तरह से स्वतंत्र हो जाएगा, इस प्रकार से प्रार्थना कर लेने के बाद तुम्हारा हृदय परमेश्वर के निकट होगा, और इस प्रकार से अक्सर प्रार्थना करने के द्वारा पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर अवश्य कार्य करेगा। यदि तुम इस तरह से सदैव परमेश्वर को पुकारोगे और परमेश्वर के समक्ष अपने दृढ़ निश्चय को रखोगे तो ऐसा दिन आएगा जब तुम्हारा दृढ़ निश्चय परमेश्वर के सामने स्वीकार हो सकता है, जब तुम्हारा हृदय और संपूर्ण अस्तित्व परमेश्वर के द्वारा स्वीकार कर लिया जाएगा, तब तुम अंततः परमेश्वर के द्वारा सिद्ध कर दिए जाओगे। प्रार्थना तुम लोगों के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। जब तुम प्रार्थना करते हो, तुम पवित्र आत्मा के कार्य को ग्रहण करते हो, इस प्रकार तुम्हारा हृदय परमेश्वर के द्वारा स्पर्श किया जाता है, और तुम्हारे भीतर परमेश्वर से किए जाने वाले प्रेम का सामर्थ्य सामने आ जाता है। यदि तुम अपने हृदय से प्रार्थना नहीं करते, यदि तुम परमेश्वर से वार्तालाप करने के लिए अपने हृदय को नहीं खोलते, तब परमेश्वर के पास तुम्हारे हृदय में कार्य करने का कोई तरीका नहीं होगा। यदि तुमने प्रार्थना करते हुए अपने हृदय के सभी शब्दों को बोल दिया है और पवित्र आत्मा ने कार्य नहीं किया है, यदि तुम अपने भीतर प्रेरित महसूस नहीं करते, तो यह दिखाता है कि तुम्हारा हृदय गंभीर नहीं है, कि तुम्हारे शब्द सच्चे नहीं हैं, और अभी भी अशुद्ध हैं। यदि प्रार्थना करते हुए तुम आभारी होते हो, तब तुम्हारी प्रार्थनाएँ परमेश्वर के द्वारा स्वीकार की जा चुकी हैं और परमेश्वर का आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य कर चुका है। परमेश्वर के समक्ष सेवा करने वाले एक व्यक्ति के रूप में तुम प्रार्थनाओं के बिना नहीं रह सकते। यदि तुम परमेश्वर के साथ संगति को सचमुच अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण रूप में देखते हो, तो क्या तुम प्रार्थना को त्याग सकते हो? परमेश्वर के साथ वार्तालाप करने के बिना कोई नहीं रह सकता। प्रार्थना के बिना तुम देह में रहते हो, तुम शैतान के बंधन में रहते हो; सच्ची प्रार्थना के बिना, तुम अंधकार के प्रभाव तले रहते हो। मैं आशा करता हूँ कि सभी भाई-बहन प्रत्येक दिन सच्चाई के साथ प्रार्थना करने के योग्य हैं। यह किसी धर्मसिद्धांत का पालन करना नहीं है, परंतु एक ऐसा प्रभाव है जिसे पूरा किया जाना चाहिए। क्या तुम थोड़ी सी नींद और आनंद को त्यागने के लिए तैयार हो, भोर को ही सुबह की प्रार्थना करने और फिर परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने के द्वारा? यदि इस तरह से तुम शुद्ध हृदय के साथ परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो तो तुम परमेश्वर के द्वारा और अधिक स्वीकार किए जाओगे। यदि तुम इसे हर दिन करते हो, हर दिन अपने हृदय को परमेश्वर को देने का अभ्यास करते हो और परमेश्वर के साथ वार्तालाप करते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारा ज्ञान निश्चित रूप से बढ़ जाएगा, और परमेश्वर की इच्छा को बेहतर रीति से समझ पाओगे। तुम्हें कहना चाहिए: "हे परमेश्वर! मैं अपने कर्तव्‍य को पूरा करना चाहता हूँ। इसलिए कि तू हम में महिमा को प्राप्त करे, और हम में, लोगों के इस समूह में गवाही का आनंद ले, मैं बस यह कर सकता हूँ कि अपने संपूर्ण अस्तित्व को तेरे प्रति भक्तिमय रूप में समर्पित कर दूँ। मैं तुझसे विनती करता हूँ कि तू हम में कार्य कर, ताकि मैं सच्चाई के साथ तुझसे प्रेम कर सकूँ और तुझे संतुष्ट कर सकूँ, और तुझे वह लक्ष्य बना सकूँ जिसको मैं पाना चाहता हूँ।" जब तुम में यह बोझ होगा, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें सिद्ध बनाएगा; तुम्हें केवल अपने लिए ही प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर की इच्छा को पूरी करने के लिए भी, और परमेश्वर से प्रेम करने के लिए भी। ऐसी प्रार्थना सबसे सच्ची प्रार्थना होती है। क्या तुम परमेश्वर की इच्छा को पूरी करने के लिए प्रार्थना करते हो?

पहले तुम लोग नहीं जानते थे कि प्रार्थना कैसे करें, और तुमने प्रार्थना को नजरअंदाज कर दिया था, तुम लोगों को स्वयं को प्रार्थना में प्रशिक्षित करने के लिए अपना सर्वोत्तम करना आवश्यक है। यदि तुम परमेश्वर से प्रेम करने में अपने आंतरिक बल को बाहर नहीं निकाल सकते, तो तुम प्रार्थना कैसे कर सकते हो? तुम्हें कहना चाहिए: "हे परमेश्वर! मेरा हृदय तुझसे सच्चाई के साथ प्रेम करने में असमर्थ है, मैं तुझसे प्रेम करना चाहता हूँ परंतु मुझ में बल की कमी है। मुझे क्या करना चाहिए? मैं चाहता हूँ कि तू मेरी आत्मा की आँखें खोल दे, मैं चाहता हूँ कि तेरा आत्मा मेरे हृदय को स्पर्श करे, ताकि मैं तेरे समक्ष सारी निष्क्रिय अवस्थाओं से रहित हो जाऊँ, और किसी भी व्यक्ति, विषय, या वस्तु के अधीन न रहूँ; मैं अपने हृदय को तेरे समक्ष पूरी तरह से खोल कर रख देता हूँ, इस प्रकार से कि मेरा पूरा अस्तित्व तेरे समक्ष समर्पित हो जाए, और तू मुझे वैसे ही परख सके जैसे तू चाहता है। अब मैं भावी संभावनाओं को कोई विचार नहीं देता, और न ही मृत्यु के बंधन में हूँ। मेरे उस हृदय का प्रयोग करते हुए जो तुझसे प्रेम करता है, मैं जीवन के मार्ग को खोजना चाहता हूँ। सारी बातें और घटनाएँ तेरे हाथों में हैं, मेरी नियति तेरे हाथों में है, और इससे बढ़कर, मेरा जीवन तेरे हाथों के नियंत्रण में है। अब मैं तुम्हारे प्रेम का अनुसरण करता हूँ, और इस बात की परवाह न करते हुए कि क्या तू मुझे अपने से प्रेम करने देगा, इस बात की परवाह न करते हुए कि शैतान कैसे हस्तक्षेप करेगा, मैं तुझसे प्रेम करने के प्रति दृढ़ हूँ।" जब तुम ऐसी बातों का सामना करते हो, तो तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो। यदि तुम प्रतिदिन ऐसा करते हो, तो परमेश्वर से प्रेम करने का बल धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा।

किस प्रकार कोई सच्ची प्रार्थना में प्रवेश करता है?

प्रार्थना करते हुए तुम्हारा हृदय परमेश्वर के समक्ष शांतिपूर्ण होना चाहिए, और यह सच्चा होना चाहिए। तुम सच्चाई के साथ परमेश्वर से वार्तालाप कर रहे होते हो और उससे प्रार्थना कर रहे होते हो; तुम्हें अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करते हुए परमेश्वर को धोखा नहीं देना चाहिए। प्रार्थना उसके इर्द-गिर्द केंद्रित होनी चाहिए जिसे परमेश्वर आज पूरा करना चाहता है। परमेश्वर से प्रार्थना करो कि वह तुम्हारे लिए और बड़े प्रकाशन और प्रज्ज्वलन को लेकर आए, और तुम परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना के लिए अपनी वास्तविक अवस्था और समस्याओं को लेकर आओ, और परमेश्वर के समक्ष दृढ़ निश्चय करो। प्रार्थना किसी प्रक्रिया का अनुसरण करना नहीं, बल्कि अपने सच्चे हृदय का इस्तेमाल करते हुए परमेश्वर को खोजना है। प्रार्थना करो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय की सुरक्षा करे, और इसे अक्सर परमेश्वर के समक्ष शांतिपूर्ण बनाए, तुम्हें योग्य बनाए कि तुम स्वयं को जान सको, और स्वयं का तिरस्कार कर सको, और उस वातावरण में स्वयं को त्याग सको जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित किया है, और इस प्रकार वह तुम्हें परमेश्वर के साथ एक सामान्य संबंध रखने की अनुमति दे और एक ऐसा व्यक्ति बनाए जो परमेश्वर से सच्चाई से प्रेम करता है।

प्रार्थना का महत्व क्या है?

प्रार्थना एक ऐसा तरीका है जिसमें मनुष्य परमेश्वर के साथ सहयोग करता है, यह एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को पुकारता है, और यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा स्पर्श किया जाता है। यह कहा जा सकता है कि जो प्रार्थनारहित होते हैं वे आत्मा के बिना मृत लोग होते हैं, और यह इसका प्रमाण है कि उनमें परमेश्वर के द्वारा स्पर्श को पाने की क्षमताओं की कमी होती है। प्रार्थना के बिना लोग एक सामान्य आत्मिक जीवन को प्राप्त नहीं कर सकते, वे पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करने के योग्य भी नहीं बन पाते; प्रार्थना के बिना वे परमेश्वर के साथ अपने संबंध को तोड़ देते हैं, और वे परमेश्वर के अनुमोदन को प्राप्त करने में अयोग्य हो जाते हैं। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो परमेश्वर पर विश्वास करता है, जितना अधिक तुम प्रार्थना करते हो, उतना अधिक तुम परमेश्वर के द्वारा स्पर्श को प्राप्त करते हो। ऐसे व्यक्तियों के पास दृढ़ निश्चय होता है और वे परमेश्वर की ओर से नवीनतम प्रकाशन को प्राप्त करने के अधिक योग्य होते हैं; परिणामस्वरूप, इस प्रकार के लोग ही पवित्र आत्मा के द्वारा जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी सिद्ध किए जा सकते हैं।

प्रार्थना के द्वारा किस प्रभाव को प्राप्त किया जाता है?

लोग प्रार्थना के कार्य को करने और प्रार्थना के महत्व को समझने में सक्षम हैं, परंतु प्रार्थना के द्वारा प्राप्त किया जाने वाला प्रभाव कोई साधारण विषय नहीं है। प्रार्थना औपचारिकताओं से होकर जाने, या प्रक्रिया का अनुसरण करने, या परमेश्वर के वचनों का उच्चारण करने का विषय नहीं है, कहने का अर्थ यह है कि प्रार्थना का अर्थ शब्दों को रटना और दूसरों की नकल करना नहीं है। प्रार्थना में तुम्हें अपना हृदय परमेश्वर को देना आवश्यक है, जिसमें अपने हृदय में परमेश्वर के साथ वचनों को बांटा जाता है ताकि तुम परमेश्वर के द्वारा स्पर्श किए जाओ। यदि तुम्हारी प्रार्थनाओं को प्रभावशाली होना है तो उन्हें तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के वचनों के पढ़े जाने पर आधारित होना आवश्यक है। परमेश्वर के वचनों के मध्य में प्रार्थना करने के द्वारा ही तुम और अधिक प्रकाशन और प्रज्ज्वलन को प्राप्त कर सकोगे। एक सच्ची प्रार्थना एक ऐसे हृदय को रखने के द्वारा ही दर्शाई जाती है जो परमेश्वर के द्वारा रखी माँगों की लालसा रखता है, और इन माँगों को पूरा करने की इच्छा रखने के द्वारा तुम उन सब बातों से घृणा कर पाओगे जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, उसी के आधार पर तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा, और परमेश्वर के द्वारा स्पष्ट किए गए सत्यों को जानोगे और उनके विषय में स्पष्ट हो जाओगे। दृढ़ निश्चय, और विश्वास, और ज्ञान, और उस मार्ग को प्राप्त करना, जिसके द्वारा प्रार्थना के पश्चात् अभ्यास किया जाता है, ही सच्चाई के साथ प्रार्थना करना है, केवल ऐसी प्रार्थना ही प्रभावशाली हो सकती है। फिर भी प्रार्थना की रचना परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने और परमेश्वर के वचनों में उसके साथ वार्तालाप करने की बुनियाद पर होनी चाहिए, इससे तुम्हारा हृदय परमेश्वर को खोजने और परमेश्वर के समक्ष शांतिपूर्ण बनने में सक्षम होगा। ऐसी प्रार्थना परमेश्वर के साथ सच्‍चे वार्तालाप के बिंदु तक पहले ही पहुँच चुकी है।

प्रार्थना करने के विषय में आधारभूत ज्ञान:

1. बिना सोचे-समझे वह सब न कहो जो मन में आता है। तुम्हारे हृदय में एक बोझ होना आवश्यक है, कहने का अर्थ है कि जब तुम प्रार्थना करो तो एक लक्ष्य होना चाहिए।

2. तुम्हारी प्रार्थनाओं में परमेश्वर के वचन होने चाहिए; वे परमेश्वर के वचनों पर आधारित होनी चाहिए।

3. प्रार्थना करते समय तुम पुरानी बातों पर बने नहीं रह सकते; तुम्हें उन बातों को नहीं लाना चाहिए जो पुरानी हो चुकी हैं। तुम्हें विशेष रीति से स्वयं को तैयार करना है कि तुम पवित्र आत्मा के वर्तमान वचनों को कहो; केवल तभी तुम परमेश्वर के साथ एक संबंध बना सकोगे।

4. सामूहिक प्रार्थना एक सार पर केंद्रित होनी चाहिए, जो आज पवित्र आत्मा का कार्य होना चाहिए।

5. सब लोगों को सीखना आवश्यक है कि दूसरों के लिए प्रार्थना कैसे करें। उन्हें परमेश्वर के वचनों में उस भाग को ढूँढना चाहिए जिसके लिए वे प्रार्थना करना चाहते हैं, उसी पर आधारित होकर उनमें एक बोझ होना चाहिए, और उसी के लिए उन्हें अक्सर प्रार्थना करनी चाहिए। यह परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का एक प्रकटीकरण है।

व्यक्तिगत प्रार्थना जीवन प्रार्थना के महत्व और प्रार्थना के आधारभूत ज्ञान को समझने पर आधारित है। मनुष्य को अक्सर अपने दैनिक जीवन की अपनी गलतियों के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के ज्ञान के आधार पर प्रार्थना करनी चाहिए ताकि वह अपने जीवन के स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपना प्रार्थना जीवन स्थापित करना चाहिए, उन्हें परमेश्वर के वचनों पर आधारित ज्ञान के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के कार्य के ज्ञान को खोजने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर के समक्ष अपनी वास्तविक परिस्थितियों को रख दो, और व्यावहारिक बनो, और विधि पर ध्यान न दो; मुख्य बात एक सच्चे ज्ञान को प्राप्त करना है, और वास्तव में परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना है। जो कोई भी आत्मिक जीवन में प्रवेश करना चाहता है, उसे कई तरीकों से प्रार्थना करने में योग्य होना आवश्यक है। शांत प्रार्थना, परमेश्वर के वचनों पर मनन करना, परमेश्वर के काम को जानना, इत्यादि—वार्तालाप का यह लक्षित कार्य सामान्य आत्मिक जीवन में प्रवेश प्राप्त करने के लिए है, जिससे परमेश्वर के समक्ष तुम्हारी परिस्थिति और अधिक बेहतर होगी, और इससे तुम्हारे जीवन में और अधिक उन्नति प्राप्त होगी। सारांश में, तुम जो कुछ भी करते हो—चाहे यह परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना हो, या शांत रूप में प्रार्थना करना या ऊँची आवाज में घोषणा करना हो—यह परमेश्वर के वचनों को और उसके कार्यों को, और उसको स्पष्ट रूप से देखने के लिए है जिसे वह तुम में पूरा करना चाहता है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, यह उन स्तरों तक पहुँचने के लिए है जिनकी परमेश्वर माँग करता है और जो तुम्हारे जीवन को अगले स्तर तक लेकर जाने के लिए है। परमेश्वर द्वारा लोगों से माँग किया जाने वाला सबसे निम्नतम स्तर यह है कि वे अपने हृदयों को परमेश्वर के प्रति खोल सकें। यदि मनुष्य अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दे दे और परमेश्वर से वह कहे जो वास्तव में उसके हृदय में परमेश्वर के लिए है, तो परमेश्वर मनुष्य में कार्य करने के लिए तैयार है; परमेश्वर मनुष्य का विकृत हृदय नहीं चाहता, बल्कि उसका शुद्ध और खरा हृदय चाहता है। यदि मनुष्य सच्चाई के साथ परमेश्वर के समक्ष अपने हृदय से नहीं बोलता है, तो परमेश्वर मनुष्य के हृदय को स्पर्श नहीं करता या उसके भीतर कार्य नहीं करता। इस प्रकार, प्रार्थना करने के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात अपने सच्चे हृदय के शब्दों को परमेश्वर से बोलना है, परमेश्वर को अपनी कमियों या विद्रोही स्वभाव के बारे में बताना है और संपूर्ण रीति से स्वयं को परमेश्वर के समक्ष खोल देना है। केवल तभी परमेश्वर तुम्हारी प्रार्थनाओं में रूचि रखेगा; यदि नहीं, तो परमेश्वर अपने चेहरे को तुमसे छिपा लेगा। प्रार्थना के लिए निम्नतम मापदंड यह है कि तुम अपने हृदय को परमेश्वर के समक्ष शांतिपूर्ण बनाए रख सको, और यह परमेश्वर से दूर न हो। शायद इस दौरान तुमने किसी नए या उच्च दृष्टिकोण को प्राप्त न किया हो, परंतु तुम्हें बातों को यथावत बनाए रखने के लिए प्रार्थना का प्रयोग करना चाहिए—तुम पीछे नहीं लौट सकते। यह वह सबसे निम्नतम है जिसे तुम्हें प्राप्त करना आवश्यक है। यदि तुम इतना भी पूरा नहीं कर सकते, तो यह प्रमाणित करता है कि तुम्हारे आत्मिक जीवन ने सही मार्ग पर प्रवेश नहीं किया है; इसके परिणामस्वरूप तुम अपने मूल दर्शन पर और परमेश्वर पर विश्वास की ऊँचाई पर बने नहीं रह सकते, और तुम्हारा दृढ़ निश्चय इसके बाद अदृश्य हो जाता है। आत्मिक जीवन में तुम्हारा प्रवेश इस बात से चिह्नित होता है कि क्या तुम्हारी प्रार्थनाओं ने सही मार्ग में प्रवेश किया है या नहीं। सब लोगों को इस वास्तविकता में प्रवेश करना आवश्यक है, उन सबको प्रार्थना में स्वयं को सचेत रूप से प्रशिक्षित करने का कार्य करना आवश्यक है, वे निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा न करें, बल्कि पवित्र आत्मा के द्वारा स्पर्श किए जाने के लिए सचेत रूप में प्रयास करें। केवल तभी वे ऐसे लोग बन पाएँगे जो सच्चाई के साथ परमेश्वर को खोजते हैं।

जब तुम प्रार्थना करना आरंभ करते हो तो तुम्हें यथार्थवादी बनना चाहिये, और महत्वाकांक्षी बनकर स्वयं को असफल नहीं होने देना चाहिए; तुम जरुरत से अधिक माँगों को नहीं रख सकते, यह आशा करते हुए कि जैसे तुम अपना मुँह खोलोगे तभी तुम्हें पवित्र आत्मा का स्पर्श मिल जाएगा, तुम प्रकाशित और प्रज्ज्वलित हो जाओगे एवं अधिक अनुग्रह को प्राप्त करोगे। यह असंभव है—परमेश्वर ऐसे कार्य नहीं करता जो अलौकिक हों। परमेश्वर लोगों की प्रार्थनाओं को अपने समय से पूरा करता है और कभी-कभी वह यह देखने के लिए तुम्हारे विश्वास को परखता है कि क्या तुम उसके समक्ष वफादार हो या नहीं। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम में विश्वास, धीरज, और दृढ़ निश्चय होना आवश्यक है। जब वे प्रार्थना के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करना आरंभ करते हैं, तो अधिकाँश लोग महसूस नहीं करते कि उनको पवित्र आत्मा के द्वारा स्पर्श किया गया है और इसलिए वे साहस खो देते हैं। इससे कुछ नहीं होगा! तुम में अटलता होनी आवश्यक है, तुम्हें पवित्र आत्मा के स्पर्श को महसूस करने पर और खोजने और जाँचने पर ध्यान देना आवश्यक है। कभी-कभी, जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह गलत होता है; कभी-कभी, तुम्हारी प्रेरणाएँ और अवधारणाएँ परमेश्वर के समक्ष स्थिर खड़ी नहीं रह सकतीं, और इसलिए परमेश्वर का आत्मा तुम्हें द्रवित नहीं करता; अतः ऐसे समय भी आते हैं जब परमेश्वर देखता है कि क्या तुम वफ़ादार हो या नहीं। सारांश में, तुम्हें स्वयं को प्रशिक्षित करने के लिए और अधिक प्रयास करना आवश्यक है। यदि तुम पाते हो कि जिस मार्ग को तुमने लिया है वह भ्रष्ट है, तो तुम अपने प्रार्थना के तरीके को बदल सकते हो। जब तुम सच्चाई के साथ प्रयास करते हो, और प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तब पवित्र आत्मा निश्चित रूप से तुम्हें इस वास्तविकता में ले जाएगा। कभी-कभी तुम सच्चे हृदय से प्रार्थना करते हो परंतु महसूस नहीं करते कि तुम्हें विशेष रूप से स्पर्श किया गया है। ऐसे समयों पर तुम्हें अपने विश्वास पर निर्भर रहना आवश्यक है, और भरोसा रखना है कि परमेश्वर तुम्हारी प्रार्थनाओं की ओर दृष्टि लगाता है; तुम्हें अपनी प्रार्थनाओं में धीरज रखने की आवश्यकता है।

तुम्हें ईमानदार होना आवश्यक है, और तुम्हें अपने हृदय की धूर्तता से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना करना आवश्यक है। जब तुम ज़रुरत के समय स्वयं को शुद्ध करने के लिए प्रार्थना का प्रयोग करते हो, और परमेश्वर के आत्मा के द्वारा स्पर्श किए जाने के लिए इसका प्रयोग करते हो, तो तुम्हारा स्वभाव धीरे-धीरे बदलता जाएगा। सच्चा आत्मिक जीवन प्रार्थना का जीवन है, और यह ऐसा जीवन है जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा स्पर्श किया जाता है। पवित्र आत्मा के द्वारा स्पर्श किए जाने की प्रक्रिया मनुष्य के स्वभाव को बदलने की प्रक्रिया है। वह जीवन जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा स्पर्श नहीं किया गया है, वह आत्मिक जीवन नहीं है, यह अभी भी धार्मिक रीति है; केवल वे ही जिन्हें अक्सर पवित्र आत्मा के द्वारा स्पर्श किया जाता है, और जो पवित्र आत्मा के द्वारा प्रकाशित और प्रज्ज्वलित किए गए हैं, ऐसे लोग हैं जिन्होंने आत्मिक जीवन में प्रवेश किया है। मनुष्य का स्वभाव निरंतर रूप से बदलता रहता है जब वह प्रार्थना करता है, और जितना अधिक वह परमेश्वर के आत्मा के द्वारा द्रवित होता है, उतना ही अधिक वह सक्रिय और आज्ञाकारी हो जाता है। इसलिए, धीरे-धीरे उसका हृदय भी शुद्ध हो जाएगा, जिसके बाद उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा। सच्ची प्रार्थना का प्रभाव ऐसा ही होता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" से उद्धृत

14. भले ही जब लोग प्रार्थना करने के लिए घुटने टेकते हैं, तो वे परमेश्वर से एक अमूर्त क्षेत्र में बोल रहे होते हैं, तुम्हें अवश्य स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि उनकी प्रार्थनाएँ भी एक प्रकार की वाहक हैं जिनके माध्यम से पवित्र आत्मा कार्य करता है। जब लोग सही अवस्था में प्रार्थना करेंगे और खोजेंगे, तो पवित्र आत्मा भी साथ-साथ कार्य करेगा। यह दो भिन्न-भिन्न परिप्रेक्ष्यों से परमेश्वर और मानवजाति के बीच एक प्रकार का सामंजस्यपूर्ण सहयोग है; दूसरे शब्दों में, यह परमेश्वर है जो लोगों को कुछ मसलों से निपटने में सहायता कर रहा है। यह इंसानों की ओर से एक प्रकार का सहयोग है जब वे परमेश्वर की उपस्थिति में आते हैं; यह एक प्रकार का तरीका भी है जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को बचाता और शुद्ध करता है। इससे भी अधिक यह लोगों का जीवन में उचित प्रवेश का एक मार्ग है, और यह एक प्रकार की रस्म नहीं है। प्रार्थना मात्र लोगों के उत्साह को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं है; यदि यह केवल ऐसा होता, तो मात्र लापरवाही से कुछ करना और नारे लगाना ही पर्याप्त होता, और कुछ भी मांगने की, आराधना या धर्मनिष्ठता की आवश्यकता नहीं होती। प्रार्थना का महत्व बहुत गहरा है! यदि तुम प्रायः प्रार्थना करते हो और तुम्हें पता है कि प्रार्थना कैसे करनी है—निरन्तर विनम्रता और तर्कसंगत तरीके से प्रार्थना कर रहे हो—तो तुम्हारी आंतरिक अवस्था विशेष रूप से उचित रहेगी। यदि प्रार्थना करते समय तुम प्रायः कुछ एक नारे ही लगाते हो और किसी भी प्रकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं रखते हो, या विचार नहीं करते हो कि तुम अपनी प्रार्थना में जो कहते हो उसमें से कौन सा तर्कसंगत है, तुम्हारे कौन से शब्द तर्कसंगत हैं, और किस प्रकार से बोलना वास्तविक प्रार्थना नहीं है, और यदि तुम इन मामलों के बारे में कभी भी गम्भीर नहीं रहे हो, तो तुम्हारी प्रार्थनाएँ सफल नहीं होंगी, और तुम्हारे भीतर की स्थिति सदैव असामान्य रहेगी; तुम इन बातों के सबकों की बहुत गहराई में कभी भी प्रवेश नहीं करोगे कि सामान्य तर्क क्या होते हैं, सच्चा आत्मसमर्पण क्या होता है, सच्ची आराधना क्या होती है, और प्रार्थना में तुम्हें कहाँ होना है। ये सभी गूढ़ मसले हैं।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "प्रार्थना का महत्व और अभ्यास" से उद्धृत

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15. तुम लोगों की प्रार्थनाओं में प्रायः तर्क का अभाव होता है; तुम लोग हमेशा निम्नलिखित स्वर के साथ प्रार्थना करते हो: "हे परमेश्वर! चूँकि तूने मुझे इस कर्तव्य को करने दिया है, अतः जो कुछ भी मैं करता हूँ, उसे तुझे उपयुक्त बनाना होगा ताकि तेरा कार्य बाधित न हो और परमेश्वर के परिवार के हित को हानि न उठानी पड़े। तुझे मुझे बचाना होगा...।" इस प्रकार की प्रार्थना अत्यधिक अतर्कसंगत है, क्या ऐसा नहीं है? ... यीशु की प्रार्थना को देखो (यद्यपि उसकी प्रार्थनाओं का यहाँ उल्लेख नहीं है ताकि लोग उसकी जगह और स्थिति को धारण कर सकें): उसने गतसमनी की वाटिका में प्रार्थना की: "यदि हो सके तो...।" अर्थात्, "यदि ऐसा किया जा सके तो।" इसे चर्चा में कहा गया था; उसने नहीं कहा कि "मैं तुझसे निवेदन करता हूँ।" एक समर्पित हृदय के साथ और एक विनीत अवस्था में, उसने प्रार्थना की: "यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो" (मत्ती 26:39)। उसने दूसरी बार भी इसी प्रकार प्रार्थना की और तीसरी बार उसने प्रार्थना की: "तेरी इच्छा पूरी हो।" परमपिता परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बाद, उसने कहा: "तेरी इच्छा पूरी हो।" वह रत्ती भर भी व्यक्तिगत चुनाव किए बिना पूरी तरह से समर्पण करने में समर्थ था। उसने कहा, "यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए।" इसका क्या अर्थ हुआ? उसने इस तरह से प्रार्थना की थी क्योंकि उसने मरते दम तक क्रूस पर खून बहाने की उस अत्यधिक पीड़ा पर विचार किया था—और इसमें मृत्यु के मामले का मोटे तौर पर ज़िक्र था—और क्योंकि उसने अभी तक परमपिता परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह से नहीं समझा था। यह देखते हुए कि पीड़ा के विचार के बावजूद भी वह इस तरह से प्रार्थना करने में समर्थ था, वह वास्तव में अत्यधिक विनम्र था। प्रार्थना करने का उसका तरीका सामान्य था; उसने अपनी प्रार्थना में कोई शर्त प्रस्तावित नहीं की, न ही उसने कहा था कि कप हटाया जाना है। बल्कि उसका उद्देश्य ऐसी परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को जानना था जिसे वह नहीं समझा था। पहली बार जब उसने प्रार्थना की तो उसे समझ नहीं आया, और उसने कहा: "यदि हो सके तो...परन्तु जैसा तू चाहता है।" उसने विनम्रता की अवस्था में परमेश्वर से प्रार्थना की। दूसरी बार, उसने उसी तरह से प्रार्थना की। कुल मिलाकर, उसने तीन बार प्रार्थना की (निस्सन्देह ये तीन प्रार्थनाएँ मात्र तीन दिनों में नहीं की गई), और अपनी अन्तिम प्रार्थना में, वह परमेश्वर की मंशाओं को पूरी तरह से समझ गया जिसके पश्चात्, उसने कुछ नहीं माँगा। पहली दो प्रार्थनाओं में, उसने विनम्रता की अवस्था में खोज की। हालाँकि, लोग बस इस प्रकार से प्रार्थना नहीं करते हैं। अपनी प्रार्थनाओं में, लोग कहते हैं, "हे परमेश्वर मैं तुझे यह या वह करने के लिए निवेदन करता हूँ, और मैं तुझसे इस या उस में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए निवेदन करता हूँ, और मेरे लिए परिस्थितियाँ तैयार करने मैं तुझसे निवेदन करता हूँ...।" हो सकता है कि वो तुम्हारे लिए परिस्थितियों को तैयार ना करे और तुम्हें मुश्किलें झेलने दे। अगर लोग हमेशा यह कहते, "हे परमेश्वर, मैं निवेदन करता हूँ कि तू मेरे लिए तैयारी कर और मुझे शक्ति दे।" इस तरह से प्रार्थना करना बहुत अतार्किक है! प्रार्थना करते समय तुम्हें तर्कसंगत अवश्य होना चाहिए, और तुम्हें ऐसा अवश्य इस आधार पर करना चाहिए कि तुम समर्पण कर रहे हो। अपनी प्रार्थनाओं को सीमांकित मत करो। यहाँ तक कि तुम्हारे प्रार्थना करने से पहले भी, तुम इस प्रकार से सीमांकित कर रहे हो: मुझे परमेश्वर से अवश्य माँगना चाहिए और उससे अमुक-अमुक करवाना चाहिए। प्रार्थना करने का यह तरीका बहुत अतर्कसंगत है।

— "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "प्रार्थना का महत्व और अभ्यास" से उद्धृत

16. कभी-कभी, जब तुम परमेश्वर के वचनों का आनंद ले रहे होते हो, तुम्हारी आत्मा द्रवित हो जातीहै, और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर से प्रेम किये बिना नहीं रह सकते, तुम्हारे भीतर बड़ी ताकत है, और ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तुम दूर नहीं कर सकते। यदि तुम ऐसा महसूस करते हो, तो परमेश्वर के आत्मा ने तुम्हें स्पर्श कर लिया है, और तुम्हारा दिल पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मुड़ चुका है, और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे और कहोगे: "हे परमेश्वर! हम वास्तव में तुम्हारे द्वारा पूर्वनिर्धारित किये गए और चुने गए हैं। तुम्हारी महिमा मुझे गौरव देती है, और तुम्हारे अपनों में से एक होना मुझे गौरवशाली लगता है। तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए मैं कुछ भी लगा दूँगा और कुछ भी दे दूँगा, अपने सभी वर्षों को और पूरे जीवन के प्रयासों को तुम्हें समर्पित कर दूँगा।" जब तुम इस तरह प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति अनंत प्रेम होगा और सच्ची आज्ञाकारिता होगी। क्या तुम्हें कभी भी ऐसा एक अनुभव हुआ है? यदि लोगों को अक्सर परमेश्वर के आत्मा द्वारा छुआ जाता है, तो वे अपनी प्रार्थनाओं में खुद को परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं: "हे परमेश्वर! मैं तुम्हारी महिमा का दिन देखना चाहता हूँ, और मैं तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ—तुम्हारे लिए जीने के मुकाबले और कुछ भी ज्यादा योग्य या सार्थक नहीं है, और मुझे शैतान और देह के लिए जीने की थोड़ी-सी भी इच्छा नहीं है। तुम मुझे आज अपने लिए जीने की खातिर सक्षम बनाकर जागृत कर लो।" जब तुम इस तरह से प्रार्थना कर लेते हो, तो तुम महसूस करोगे कि तुम परमेश्वर को अपना दिल दिए बिना नहीं रह सकते, कि तुम्हें परमेश्वर को प्राप्त करना ही होगा, और तुम जीते-जी परमेश्वर को पा लेने के बिना ही मर जाने से नफरत करोगे। ऐसी प्रार्थना करने करने के बाद, तुम्हारे भीतर एक अक्षय ताकत होगी, और तुम नहीं जान पाओगे कि यह कहाँ से आती है; तुम्हारे हृदय के अंदर एक असीम शक्ति होगी, और तुम्हें एक आभास होगा कि परमेश्वर बहुत मनोहर है, और वह प्रेम करने के योग्य है। यह तब होता है जब तुम परमेश्वर द्वारा छू लिए जाओगे। क्योंकि जिन सभी लोगों को इस तरह का अनुभव हुआ है, वे सभी परमेश्वर के द्वारा छू लिए गए हैं। जिन लोगों को परमेश्वर अक्सर छूता है, उनके जीवन में परिवर्तन हो जाते हैं, वे अपने संकल्प को बनाने में सक्षम हो जाते हैं और परमेश्वर को पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए तैयार होते हैं, उनके दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम अधिक मजबूत होता है, उनके दिल पूरी तरह से परमेश्वर की ओर मुड़ चुके होते हैं, उन्हें परिवार, दुनिया, उलझनों, या अपने भविष्य की कोई परवाह नहीं होती, और वे परमेश्वर के लिए जीवन भर के प्रयासों को समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। वे सभी जिन्हें परमेश्वर के आत्मा ने छुआ है, वे ऐसे लोग होते हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं, और जो परमेश्वर द्वारा परिपूर्ण किये जाने की आशा रखते हैं।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में "परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और परमेश्वर के चरण-चिन्हों का अनुसरण करो" से उद्धृत

17. पतरस नामक इस व्यक्ति के पास उत्कृष्ट क्षमता थी, परन्तु उसकी परिस्थितियां पौलुस से भिन्न थीं। उसके माता-पिता ने मुझे सताया था, वे शैतान की दुष्ट शक्तियों के अधीन थे, और इसी कारण से कोई यह नहीं कह सकता कि उन्होंने पतरस को अपने तौर-तरीकों से प्रभावित किया। पतरस बुद्धि से चुस्त था, जन्‍मजात बुद्धिसम्पन्न था, बचपन से उसके माता-पिता उससे स्नेह करते थे, फिर भी, बड़े होने के बाद, वह उनका शत्रु बन गया, क्योंकि उसने हमेशा मुझे जानने की कोशिश की, और इसी बात ने उसे अपने माता-पिता से विमुख कर दिया। यह इसलिए हुआ क्योंकि, सबसे पहले, उसे यह विश्वास था कि स्वर्ग और पृथ्वी और उसकी सभी वस्तुएं सर्वशक्तिमान के हाथों में हैं, और सभी सकारात्मक बातें, शैतान की किसी भी रीति से गुज़रे बिना उसी से उत्पन्न होती हैं और सीधे उसी की ओर से आती हैं। उसके माता-पिता के प्रतिकूल उदाहरण से तुलना करके, वह मेरे प्रेम एवं दया को और भी अधिक आसानी से समझने में सक्षम हो पाया, जिस कारणवश उसके भीतर मुझे खोजने का आवेग और तीव्र हो गया। उसने न केवल बहुत ही करीबी से मेरे वचनों को खाने और पीने पर ध्यान दिया, बल्कि मेरे इरादों को समझने के लिए और भी अधिक प्रयास किया, और वह अपने विचारों में लगातार दूरदर्शी एवं सतर्क रहा, इसलिए वह अपनी आत्मा में बहुत ही कुशाग्रता से चतुर बना रहा और वह अपने हर काम में मुझे प्रसन्न कर सका। साधारण जीवन में, उसने, असफलताओं के जाल में फंसने से गहराई में भयातुर होकर, अतीत में असफल हुए लोगों के सबक स्‍वयं में समाहित करने पर बहुत करीबी से ध्यान दिया ताकि और भी महान प्रयास के लिए अपने आप को प्रेरित करता रहे। उसने उन लोगों की आस्‍था और प्रेम को आत्मसात करने पर भी करीब से ध्यान दिया जो युगों से परमेश्वर को प्रेम करते आ रहे थे। इस प्रकार से उसने न केवल नकारात्मक रूप में, बल्कि और भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, सकारात्मक रूप से अपने विकास की प्रगति को तेज़ किया, जब तक कि वह मेरी उपस्थिति में मुझे सबसे अच्छी तरह जानने वाला व्यक्ति न बन गया। इसी कारण से, इस की कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि किस प्रकार से वह अपना सब कुछ मेरे हाथों में दे पाया, यहां तक कि खाने-पीने, कपड़े पहनने, सोने या रहने में भी वह स्वयं का स्वामी नहीं रहा, परन्तु मुझे सभी बातों में संतुष्टि प्रदान करने को उसने अपनी बुनियाद बनाया जिसके ऊपर उसने मेरे उपहारों का आनन्द लिया। कई बार मैंने उसे परीक्षाओं में रखा, जिन्‍होंने वास्तव में उसे अधमरा कर दिया, परन्तु इन सैकड़ों परीक्षाओं के मध्य में भी, उसने कभी भी मुझ पर अपनी आस्‍था नहीं छोड़ी या मुझ से मायूस नहीं हुआ। बल्कि जब मैंने कहा कि मैंने उसे पहले से ही अलग कर दिया है, तो उसका दिल कमज़ोर नहीं पड़ा या व‍ह निराशा में नहीं पड़ गया, बल्कि पहले की ही तरह उसने अपने सिद्धांतों का पालन करना जारी रखा ताकि मुझे व्यावहारिक ढंग से प्रेम कर सके। जब मैंने उससे कहा कि भले ही वह मुझ से प्रेम करता था, मैं उसकी प्रशंसा नहीं करूँगा बल्कि अंत में मैं उसे शैतान के हाथों में दे दूँगा। इन परीक्षाओं के मध्य, जो उसकी देह में नहीं पहुंची परन्तु जो वचनों के माध्‍यम से किए गए परीक्षण थे, फ़िर भी उसने मेरे लिए प्रार्थना की: "हे, परमेश्वर! स्वर्ग, पृथ्वी और उसकी असंख्य वस्तुओं के मध्य, ऐसा कोई मनुष्य है, कोई सृष्टि है, या कोई ऐसी वस्तु है सर्वशक्तिमान, जो तेरे हाथों में न हो? जब तू मुझे अपनी दया दिखाने की इच्छा करता है, तब मेरा हृदय तेरी दया के कारण बहुत आनन्दित होता है, जब तू मुझ पर न्‍याय का प्रतिपादन करना चाहता है, हो सकता है भले ही मैं उसके अयोग्य रहूँ, मैं तेरे रहस्यमय कार्यों को और भी अधिक महसूस करता हूँ, क्योंकि तू अधिकार और बुद्धि से परिपूर्ण है। हालांकि मेरा शरीर पीड़ित हो सकता है, लेकिन मैं अपनी आत्मा में चैन से हूं। मैं तेरी बुद्धि और कार्यों की प्रशंसा क्यों न करूं? यदि मैं तुझे जानने के बाद मर भी जाऊं, तो मैं उसके लिए हमेशा तैयार और प्रस्‍तुत रहूंगा। हे, सर्वशक्तिमान! निश्चय ही ऐसा नहीं है कि तू सचमुच मुझे ख़ुद को देखने नहीं देना चाहता है? निश्चय ही ऐसा नहीं है कि मैं सच में तेरे न्याय को प्राप्त करने के अयोग्य हूँ? क्या यह सम्भव हो सकता है कि मुझ में ऐसा कुछ है जो तू नहीं देखना चाहता?" इस प्रकार की परीक्षाओं के मध्य, हालांकि पतरस भी मेरे इरादों को सटीकता से समझने में असफल रहा, यह स्पष्ट है कि उसने मेरे द्वारा उपयोग किए जाने को गर्व और व्यक्तिगत महिमा का विषय समझा (चाहे यह केवल मेरा न्याय पाना ही क्‍यों न हो, ताकि मानवता मेरी महिमा और क्रोध को देख सके), और परीक्षाओं के अधीन रखे जाने पर वह बिल्कुल भी निरूत्साहित नहीं हुआ। मेरी उपस्थिति में उसकी निष्‍ठा के कारण, और उस पर मेरे आशीषों के कारण, वह हज़ारों सालों के लिए मानवजाति के लिए एक उदाहरण और आदर्श बन गया है। क्या यह एक ऐसा उदाहरण नहीं है जिसका तुम लोगों को अनुसरण करना चाहिए?

— "वचन देह में प्रकट होता है" में संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन के "अध्याय 6" से उद्धृत

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18. जब पतरस को परमेश्वर के द्वारा ताड़ना दी जा रही थी, तो उसने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! मेरी देह अनाज्ञाकारी है, तू मुझे ताड़ना देता है और मेरा न्याय करता है। मैं तेरी ताड़ना और न्याय में आनन्दित होता हूँ, भले ही तू मुझे न चाहे, फिर भी मैं तेरे न्याय में तेरे पवित्र और धर्मी स्वभाव को देखता हूँ। जब तू मेरा न्याय करता है, ताकि अन्य लोग तेरे न्याय में तेरे धर्मी स्वभाव को देख सकें, तो मैं संतुष्टि का एहसास करता हूँ। मैं यही चाहता हूँ कि तेरा धर्मी स्वभाव प्रकट किया जाये ताकि सभी प्राणी तेरे धर्मी स्वभाव को देख सकें, और मैं तुझे अधिक शुद्धता से प्रेम कर सकूँ और मैं एक धर्मी की सदृश्ता को प्राप्त कर सकूँ। तेरा यह न्याय अच्छा है, क्योंकि तेरी अनुग्रहकारी इच्छा ऐसी ही है। मैं जानता हूँ कि अभी भी मेरे भीतर बहुत कुछ ऐसा है जो विद्रोही है, और मैं अभी भी तेरे सामने आने के योग्य नहीं हूँ। मैं तुझसे चाहता हूँ कि तू मेरा और भी अधिक न्याय करे, चाहे क्रूर वातावरण के जरिए या बड़े क्लेश के जरिए; तू मेरा न्याय कैसे भी करे, यह मेरे लिए बहुमूल्य है। तेरा प्यार कितना गहरा है, और मैं बिना कोई शिकायत किए स्वयं को तेरे आयोजन पर छोड़ने को तैयार हूँ।" यह परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लेने के बाद का पतरस का ज्ञान है, और साथ ही यह परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम की गवाही है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में "पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान" से उद्धृत

                                                                   स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया

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