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सच्ची प्रार्थना करने का क्या मतलब है?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

सच्चाई के साथ प्रार्थना करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है अपने हृदय में शब्दों को कहना, और परमेश्वर की इच्छा को समझकर और उसके वचनों पर आधारित होकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करना; इसका अर्थ है विशेष रूप से परमेश्वर के निकट महसूस करना, यह महसूस करना कि वह तुम्हारे सामने है, और कि तुम्हारे पास उससे कहने के लिए कुछ है; और इसका अर्थ है अपने हृदय में विशेष रूप से प्रज्ज्वलित या प्रसन्न होना, और यह महसूस करना कि परमेश्वर विशेष रूप से मनोहर है। तुम विशेष रूप से प्रेरणा से भरे हुए महसूस करोगे, और तुम्हारे शब्दों को सुनने के बाद तुम्हारे भाई और तुम्हारी बहनें आभारी महसूस करेंगे, वे महसूस करेंगे कि जो शब्द तुम बोलते हो वे उनके हृदय के भीतर के शब्द हैं, वे ऐसे शब्द हैं जो वे कहना चाहते हैं, और जो तुम कहते हो वह वही है जो वे कहना चाहते हैं। सच्चाई के साथ प्रार्थना करने का अर्थ यही है। सच्चाई के साथ प्रार्थना करने के बाद, अपने हृदय में तुम शांतिपूर्ण, और आभारी महसूस करोगे; परमेश्वर से प्रेम करने की सामर्थ्य बढ़ जाएगी, और तुम महसूस करोगे कि तुम्हारे जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने से अधिक योग्य और महत्वपूर्ण कुछ नहीं है—और यह सब प्रमाणित करेगा कि तुम्हारी प्रार्थनाएँ प्रभावशाली रही हैं।

                       — "वचन देह में प्रकट होता है" में "प्रार्थना की क्रिया के विषय में" से उद्धृत

परमेश्वर द्वारा लोगों से माँग किया जाने वाला सबसे निम्नतम स्तर यह है कि वे अपने हृदयों को परमेश्वर के प्रति खोल सकें। यदि मनुष्य अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दे दे और परमेश्वर से वह कहे जो वास्तव में उसके हृदय में परमेश्वर के लिए है, तो परमेश्वर मनुष्य में कार्य करने के लिए तैयार है; परमेश्वर मनुष्य का विकृत हृदय नहीं चाहता, बल्कि उसका शुद्ध और खरा हृदय चाहता है। यदि मनुष्य सच्चाई के साथ परमेश्वर के समक्ष अपने हृदय से नहीं बोलता है, तो परमेश्वर मनुष्य के हृदय को स्पर्श नहीं करता या उसके भीतर कार्य नहीं करता। इस प्रकार, प्रार्थना करने के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात अपने सच्चे हृदय के शब्दों को परमेश्वर से बोलना है, परमेश्वर को अपनी कमियों या विद्रोही स्वभाव के बारे में बताना है और संपूर्ण रीति से स्वयं को परमेश्वर के समक्ष खोल देना है। केवल तभी परमेश्वर तुम्हारी प्रार्थनाओं में रूचि रखेगा; यदि नहीं, तो परमेश्वर अपने चेहरे को तुमसे छिपा लेगा।

                    — "वचन देह में प्रकट होता है" में "प्रार्थना की क्रिया के विषय में" से उद्धृत

कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है: "हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ," जब उनके मन में ये विचार आते हैं, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब ये विचार लोगों के मन में उठते हैं, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मन:स्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तेरा हृदय ईमानदार होता है, जब तू परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करता है मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तू अपने जीवन को बचाने के लिए पकड़ता है और यह उम्मीद करता है कि वह तेरी मदद करेगा। यद्यपि तूने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तेरा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तू परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देता है, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, वह तेरी कठिनाइयों को देखेगा, तो वह तुझे प्रबुद्ध करेगा, तेरा मार्गदर्शन करेगा, और तेरी सहायता करेगा।

              — "मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "विश्वासियों को सबसे पहले दुनिया की दुष्ट प्रवृत्तियों की प्रकृति का पता लगाने की ज़रूरत है" से उद्धृत

प्रार्थना औपचारिकताओं से होकर जाने, या प्रक्रिया का अनुसरण करने, या परमेश्वर के वचनों का उच्चारण करने का विषय नहीं है, कहने का अर्थ यह है कि प्रार्थना का अर्थ शब्दों को रटना और दूसरों की नकल करना नहीं है। प्रार्थना में तुम्हें अपना हृदय परमेश्वर को देना आवश्यक है, जिसमें अपने हृदय में परमेश्वर के साथ वचनों को बांटा जाता है ताकि तुम परमेश्वर के द्वारा स्पर्श किए जाओ। यदि तुम्हारी प्रार्थनाओं को प्रभावशाली होना है तो उन्हें तुम्हारे द्वारा परमेश्वर के वचनों के पढ़े जाने पर आधारित होना आवश्यक है। परमेश्वर के वचनों के मध्य में प्रार्थना करने के द्वारा ही तुम और अधिक प्रकाशन और प्रज्ज्वलन को प्राप्त कर सकोगे। एक सच्ची प्रार्थना एक ऐसे हृदय को रखने के द्वारा ही दर्शाई जाती है जो परमेश्वर के द्वारा रखी माँगों की लालसा रखता है, और इन माँगों को पूरा करने की इच्छा रखने के द्वारा तुम उन सब बातों से घृणा कर पाओगे जिनसे परमेश्वर घृणा करता है, उसी के आधार पर तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा, और परमेश्वर के द्वारा स्पष्ट किए गए सत्यों को जानोगे और उनके विषय में स्पष्ट हो जाओगे। दृढ़ निश्चय, और विश्वास, और ज्ञान, और उस मार्ग को प्राप्त करना, जिसके द्वारा प्रार्थना के पश्चात् अभ्यास किया जाता है, ही सच्चाई के साथ प्रार्थना करना है, केवल ऐसी प्रार्थना ही प्रभावशाली हो सकती है। फिर भी प्रार्थना की रचना परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने और परमेश्वर के वचनों में उसके साथ वार्तालाप करने की बुनियाद पर होनी चाहिए, इससे तुम्हारा हृदय परमेश्वर को खोजने और परमेश्वर के समक्ष शांतिपूर्ण बनने में सक्षम होगा। ऐसी प्रार्थना परमेश्वर के साथ सच्‍चे वार्तालाप के बिंदु तक पहले ही पहुँच चुकी है।

                       — "वचन देह में प्रकट होता है" में "प्रार्थना की क्रिया के विषय में" से उद्धृत

मैं आशा करता हूँ कि सभी भाई-बहन प्रत्येक दिन सच्चाई के साथ प्रार्थना करने के योग्य हैं। यह किसी धर्मसिद्धांत का पालन करना नहीं है, परंतु एक ऐसा प्रभाव है जिसे पूरा किया जाना चाहिए। क्या तुम थोड़ी सी नींद और आनंद को त्यागने के लिए तैयार हो, भोर को ही सुबह की प्रार्थना करने और फिर परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने के द्वारा? यदि इस तरह से तुम शुद्ध हृदय के साथ परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो तो तुम परमेश्वर के द्वारा और अधिक स्वीकार किए जाओगे। यदि तुम इसे हर दिन करते हो, हर दिन अपने हृदय को परमेश्वर को देने का अभ्यास करते हो और परमेश्वर के साथ वार्तालाप करते हो, तो परमेश्वर के प्रति तुम्हारा ज्ञान निश्चित रूप से बढ़ जाएगा, और परमेश्वर की इच्छा को बेहतर रीति से समझ पाओगे। तुम्हें कहना चाहिए: "हे परमेश्वर! मैं अपने कर्तव्‍य को पूरा करना चाहता हूँ। इसलिए कि तू हम में महिमा को प्राप्त करे, और हम में, लोगों के इस समूह में गवाही का आनंद ले, मैं बस यह कर सकता हूँ कि अपने संपूर्ण अस्तित्व को तेरे प्रति भक्तिमय रूप में समर्पित कर दूँ। मैं तुझसे विनती करता हूँ कि तू हम में कार्य कर, ताकि मैं सच्चाई के साथ तुझसे प्रेम कर सकूँ और तुझे संतुष्ट कर सकूँ, और तुझे वह लक्ष्य बना सकूँ जिसको मैं पाना चाहता हूँ।" जब तुम में यह बोझ होगा, तो परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें सिद्ध बनाएगा; तुम्हें केवल अपने लिए ही प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर की इच्छा को पूरी करने के लिए भी, और परमेश्वर से प्रेम करने के लिए भी। ऐसी प्रार्थना सबसे सच्ची प्रार्थना होती है।

                       — "वचन देह में प्रकट होता है" में "प्रार्थना की क्रिया के विषय में" से उद्धृत

संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण:

परमेश्वर के साथ सच्ची संगति को कई परिणाम उत्पन्न करने चाहिए: सबसे पहले, परमेश्वर के साथ संगति करते समय, हम स्वयं को ही जान लेने का परिणाम प्राप्त करते हुए, अपनी भ्रष्टता के सत्य और अपनी प्रकृति के सार को जान सकते हैं। परमेश्वर की उपस्थिति में, हमें अक्सर उन चीजों पर चिंतन करना चाहिए जो हमने की हैं, ताकि हम देख सकें कि वे वास्तव में परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हैं या नहीं, और यह देख सकें कि वह क्या है जिस पर हमने जीने के लिए भरोसा किया है। यदि हम परमेश्वर के वचन के अनुसार जीए हैं, तो यह जीवन में प्रवेश की गवाही है। यदि हम शैतान के फ़लसफ़े से जीए हैं, तो यह शैतान की भ्रष्ट प्रकृति की अभिव्यक्ति है, जिसे एक उलंघन माना जाता है। दूसरा, परमेश्वर के साथ संगति करते समय, हम न केवल स्वयं का सच्चा ज्ञान प्राप्त करते हैं, बल्कि हम परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त करते हैं, जो कि परमेश्वर से संगति करने का परिणाम है। परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के बाद, हम अपने हृदय में परमेश्वर का सम्मान करना शुरू करेंगे, अपने हृदय में हम परमेश्वर का आज्ञा का पालन करेंगे, और अपने हृदय में परमेश्वर से प्रेम करेंगे, जो अंततः हममें परमेश्वर की सेवा करने का संकल्प लाएगा। यह परमेश्वर को जानने के द्वारा प्राप्त परिणाम है, और यह परमेश्वर के साथ संगति करने का भी परिणाम है। यदि हम परमेश्वर के साथ अपनी संगति में इन परिणामों को प्राप्त नहीं करते हैं, तो यह इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि हमने अपनी प्रार्थनाओं में सही मार्ग पर प्रवेश नहीं किया है, और हमने वास्तव में परमेश्वर के साथ संगति नहीं की है। कुछ लोग कहते हैं: "अच्छा, मैंने तो कई सालों तक प्रार्थना की है, तो क्या इसका यह अर्थ है कि मैं परमेश्वर के साथ संगति में हूँ?" तब तुम्हें इसे इन परिणामों के अनुसार मापना होगा। क्या परमेश्वर से की गई तुम्हारी प्रार्थनाओं में तुम्हारे पास स्वयं को जान लेने का परिणाम है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर की इच्छा और सत्य को जानने का परिणाम है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का आज्ञापालन करने का परिणाम है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर का सम्मान करने का परिणाम है? क्या तुम्हारे पास परमेश्वर को प्रेम करने का परिणाम है? यदि तुम्हारे पास इनमें से कोई एक भी परिणाम नहीं है, तो तुम्हारी प्रार्थनाएँ खोखली हैं, वे अर्थहीन हैं, और तुम परमेश्वर के साथ सच्ची संगति में हो ही नहीं।

                                                    — जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति से उद्धृत

                                                                  स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया

प्रार्थना क्या है? “सच्ची प्रार्थना” का क्या मतलब है?

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